! अब लिखो बिना डरे !
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ना कोई सगा रहा,
जिस दिन से होकर बेधड़क
मैंने गलत को गलत कहा!
तोहमतें लगने लगी,
धमकियां मिलने लगी,
हां मेरे किरदार पर भी
ऊंगलियां उठने लगी,
कातिलों के सामने भी
सिर नहीं मेरा झुका!
मैंने गलत को गलत कहा!
चापलूसों से घिरे
झाड़ पर वो चढ़ गये,
इतना गुरूर था उन्हें
कि वो खुदा ही बन गये,
झूठी तारीफें न सुन
हो गये मुझसे ख़फा!
मैंने गलत को गलत कहा!
मेरी सब बेबाकियों की
दी गई ज़ालिम सज़ा,
फांसी पे लटका दिया
बोले अब आया मज़ा,
है गलत जिसने गलत को
मौन होकर न सहा!
मैंने गलत को गलत कहा!
शिखा कौशिक नूतन
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