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‘हर ज़ख्म छिपाना पड़ता है ‘

! अब लिखो बिना डरे !
! अब लिखो बिना डरे !
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अपनों की गद्दारी का ;
हर ज़ख़्म छिपाना पड़ता है !
गैरों के अपनेपन से ;
ये दिल बहलाना पड़ता है !
…………………………………
है मालूम हमें मक्कारी ;
पीठ के पीछे करता है ,
पर महफ़िल में हंसकर उससे ;
हाथ मिलाना पड़ता है !
…………………………………
धोखा खाकर भी न सम्भले ;
मौत के मुंह तक आ पहुंचे ,
हमदर्दों की हमदर्दी का ;
मोल चुकाना पड़ता है !
………………………………
मेरे कातिल खड़े भीड़ में ;
मातम खूब मानते हैं ,
हाय ज़नाज़े को कन्धा भी ;
उन्हें लगाना पड़ता है !
……………………………….
‘नूतन’ दिल के टुकड़े-टुकड़े ;
हुए हैं दुनियादारी में ,
जल्लादों के आगे सिर ये ;
रोज़ झुकाना पड़ता है !

शिखा कौशिक ‘नूतन’

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