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अपने हिस्से की हमें भी अब इमरती चाहिए !

! अब लिखो बिना डरे !
! अब लिखो बिना डरे !
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कोख में ही क़त्ल होने से बची कलियाँ हैं हम ,
खिल गयी हैं इस जगत में झेलकर ज़ुल्मो सितम ,
मांगती अधिकार स्त्री भीख नहीं चाहिए ,
अपने हिस्से की हमें भी अब इमरती चाहिए !
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पितृसत्ता ने इशारों पर नचाई स्त्री ,
देह की ही कोठरी में बंद कर दी स्त्री ,
पितृसत्ता की नौटंकी बंद होनी चाहिए ,
अपने हिस्से की हमें भी अब इमरती चाहिए !
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है पुरुष को ये अहम नीच स्त्री उच्च हम ,
साथ साथ फिर भला कैसे बढ़ा सकती कदम ,
‘आइटम’ कहते हुए लज्जा तो आनी चाहिए !
अपने हिस्से की हमें भी अब इमरती चाहिए !
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चौखटों को पार कर आई है जो भी स्त्री ,
पितृ सत्ता को नहीं भायी है ऐसी स्त्री ,
चीरहरण की भुजायें अब तो कटनी चाहिए !
अपने हिस्से की हमें भी अब इमरती चाहिए !
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तुम जलाकर देख लो सीता नहीं जलती कोई ,
न अहल्या न शकुंतला छल से ही डरती कोई ,
स्त्री को चैन की अब श्वांस मिलनी चाहिए !
अपने हिस्से की हमें भी अब इमरती चाहिए !

शिखा कौशिक ‘नूतन’

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