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”हैं बहुत गहरे मेरे,ज़ख्म न भर पायेंगें !”

! अब लिखो बिना डरे !
! अब लिखो बिना डरे !
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मरहम तसल्ली के लगा लो ,राहत नहीं कर पायेंगें ,
हैं बहुत गहरे मेरे , ज़ख्म न भर पायेंगें !
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टूटा है टुकड़े-टुकड़े दिल ,कैसे ये जुड़ जायेगा ,
जोड़ पाने की जुगत में और चोट खायेगा ,
दर्द के धागों से कसकर लब मेरे सिल जायेंगें !
हैं बहुत गहरे मेरे , ज़ख्म न भर पायेंगें !
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है मुकद्दर की खता जो मुझको इतने ग़म मिले ,
रुक नहीं पाये कभी आंसुओं के सिलसिले ,
है नहीं उम्मीद बाकी अच्छे दिन भी आयेंगें !
हैं बहुत गहरे मेरे , ज़ख्म न भर पायेंगें !
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अब तड़पकर रूह मेरी कहती है अक्सर बस यही ,
और क्या-क्या देखने को तू यहाँ ज़िंदा रही ,
मौत के आगोश में ”नूतन” सुकूं ले पायेंगें !
हैं बहुत गहरे मेरे , ज़ख्म न भर पायेंगें !

शिखा कौशिक ”नूतन’

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