! अब लिखो बिना डरे !
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क्यों कैद किया औरत को ?
घूंघट की दीवारों में ,
घुटती है ; सिसकती है ,
घूंघट की दीवारों में !
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कुछ कर के दिखाने की ;
उसकी भी तमन्ना थी ,
दम तोड़ रही हर चाहत ;
घूंघट की दीवारों में !
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मुरझाया सा दिल लेकर ;
दिन-रात भटकती है ,
हाय कितना अँधेरा है !
घूंघट की दीवारों में !
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घूंघट जो उठाया तो ;
बदनाम न हो जाये ,
डर-डर के रोज़ मरती है ;
घूंघट की दीवारों में !
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क्या फूंकना औरत को ;
मरघट पे है ले जाकर ,
जल-जल के खाक होती है ;
घूंघट की दीवारों में !
शिखा कौशिक ‘नूतन’
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