! अब लिखो बिना डरे !
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पर्दे में रहते हुए
वो घुट रही है ,
मर रहे हैं उसके
चिंतनशील अंतर्मन
के विचार,
और सिमट रहे हैं
अभिलाषाओं के फूल ,
जो कभी खिले थे
ह्रदय के उपवन में ,
कि दे पाऊँगी
इस विश्व को नूतन कुछ
और हो जाउंगी
मरकर भी अमर !!
शिखा कौशिक ‘नूतन’
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