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”मृत्यु की अभिलाषा !”

! अब लिखो बिना डरे !
! अब लिखो बिना डरे !
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टूटे जब स्वप्नों की माला आशा भये निराशा ,
तब रह जाती शेष केवल मृत्यु की अभिलाषा !
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चिर-वियोग जब प्रियजनों का सहना पड़ता भारी ,
पल-पल पीड़ा शूल चुभाती निर्मम अत्याचारी ,
बहते अश्रु मुख पर लिखते जीवन की परिभाषा !
तब रह जाती शेष केवल मृत्यु की अभिलाषा !
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हर लेता जब रावण सीता पंचवटी में छल से ,
कमल-नयन तब भर आते व्यथित हो अश्रु-जल से ,
धीर-वीर-गम्भीर राम भी झेलें गहन हताशा !
तब रह जाती शेष केवल मृत्यु की अभिलाषा !
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भेद न पाएं लक्ष्य जब-जब लज्जित होते हैं हम ,
शत्रु छोड़ें व्यंग्य-वाण घायल होता अंतर्मन ,
अपमानों के जोखिम वाला जीवन एक तमाशा !
तब रह जाती शेष केवल मृत्यु की अभिलाषा !

शिखा कौशिक ‘नूतन’

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