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”बसंत का शुभागमन !”

! अब लिखो बिना डरे !
! अब लिखो बिना डरे !
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थी सुप्त कहीं जो चंचलता
अंगड़ाई लेकर जाग उठी ,
सृष्टि के सुन्दर आँगन में
नव-पल्लव वंदनवार सजी !
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श्वेत शीत के वसन त्याग
बासंती वेष किया धारण ,
बांध नुपुर विहग-कलरव
सृष्टि थिरके अ-साधारण !
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चटकी कलियाँ मटकी सरिता
जन-तन-मन में रोमांच भरा ,
मदमस्त पवन के छूने से
लज्जित स्मित कोमल लतिका !
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है हास-विलास उमंग-तरंग ,
निखरा सृष्टि का अंग-अंग ,
निज रूप निहारे सरोवर में
सुन्दरतम बिम्ब का प्रतिबिम्ब !
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कामदेव के वाण पांच
चलते प्रतिपल हैं इसी मास ,
प्रेमी-युगलों में मिलन प्यास
करती मधु को अति मधुमास !
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नव-पल्लव सम नव आस जगे ,
हरियाये जन-जन का जीवन ,
सन्देश यही लेकर बसंत
हर उर में करता शुभागमन !

शिखा कौशिक ‘नूतन’

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