! अब लिखो बिना डरे !
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ठिठुर-ठिठुर काली भई तुलसी
हरा रूप जब भया कुरूप
आँगन में तब आई धूप !
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कातिल शीत हवाएं आकर
चूस गयी तन का पीयूष
आँगन में तब आई धूप !
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गर्म शॉल लगें सूती चादर
कैसे काटें माघ व् पूस
आँगन में तब आई धूप !
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सब जन कांपें हाड़ हाड़
हो निर्धन या कोई भूप
आँगन में तब आई धूप !
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हिम सम लगे सारा जल ,
क्या जोहड़ नहर व् कूप ,
आँगन में तब आई धूप !
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चहुँ ओर कोहरे की चादर ,
बना पहेली एक अबूझ ,
आँगन में तब आई धूप !
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हुआ निठल्ला तन व् मन ,
गई अंगुलियां सारी सूज ,
आँगन में तब आई धूप !
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पाले ने हमला जब बोला ,
बगिया सारी गई सूख ,
आँगन में तब आई धूप !
शिखा कौशिक ‘नूतन’
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