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बड़ी पाबंदियां हैं इन लबों के मुस्कुराने पर !

! अब लिखो बिना डरे !
! अब लिखो बिना डरे !
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बड़ी पाबंदियां हैं इन लबों के मुस्कुराने पर ,
मुखालिफ करते हैं एतराज़ इनके मुस्कुराने पर !
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मेरी खामोशियाँ भी चीखती हैं इस ज़माने में ,
हूँ मैं पत्थर वही जो लगता है जाकर निशाने पर !
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मुझे है फख्र मुझमें आज तक मक्कारियाँ नहीं ,
नहीं होता हूँ शर्मिंदा तेरे खिल्ली उड़ाने पर !
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मुझे आदत नहीं मखमली फूलों से मैं खेलूँ ,
नहीं होगी शिकायत आपके कांटें चुभाने पर !
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मुझे सुकून मिलता हर नए जख्म से ‘नूतन’ ,
बहुत बेचैन हो उठता हूँ मैं मरहम लगाने पर !!

शिखा कौशिक ‘नूतन’

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